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Showing posts from August, 2007

परमाणु करार का सच - 1

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माकपा के पोलित ब्यूरो ने पार्टी नेतृत्व को यह फैसला लेने का हक दे दिया कि यूपीए सरकार को मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए. क्या होगा यह तो बाद की बात है, लेकिन यह बात गौर किए जाने की है कि पार्टी नेतृत्व ने पोलित ब्यूरो से तब ऐसा कोई हक मांगने की जरूरत नहीं समझी जब उसकी सहानुभूति का केंद्रीय वर्ग (लक्ष्य समूह इसलिए नहीं कह रहा हूँ क्योंकि यह पूंजीवादी कोष का शब्द है) यानी सर्वहारा अपने को सबसे ज्यादा तबाह, थका-हरा और सर्वहारा महसूस कर रहा था. महंगाई और बेकारी, ये दो ऎसी मुसीबतें हैं जो इस वर्ग को जमींदोज कर देने के लिए काफी हैं और यूपीए सरकार के कार्यकाल में ये दोनों चीजें बेहिसाब बढ़ी हैं. ऐसा नहीं है कि अब ये घट गई हैं या नहीं बढ़ रही हैं, पर कामरेड लोगों ने इन मसलों पर थोडा-बहुत फूं-फां करने के अलावा और कुछ किया नहीं. यह बात भी सुनिश्चित हो गई कि परमाणु करार वाले मसले पर भी ये लोग इससे ज्यादा कुछ करेंगे नहीं. प्रकाश करात ने कह दिया है कि हम सरकार अस्थिर करने के पक्ष में नहीं है, लेकिन इसके बाद भी सरकार को करार पर कदम बढाने से पहले अपने भविष्य का भी फैसला करना होगा. सवाल यह है कि जब आप

हम ठहरे विश्वगुरू

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चाय की गुमटी पर बैठे-बैठे ही अच्छी-खासी बहस छिड़ गई और सलाहू एकदम फायर. सारे बवेले की जड़ में हमेशा की तरह इस बार भी मौजूद था मास्टर. कभी-कभी तो मुझे लगता है इस देश में विवादों की ढ़ेर की वजह यहाँ मास्टरों की बहुतायत ही है. ज्यादा विवाद हमारे यहाँ इसीलिए हैं क्योंकि यहाँ मास्टर बहुत ज्यादा हैं. एक ढूँढो हजार मिलते हैं. केवल स्कूल मास्टर ही नहीं, ट्यूशन मास्टर, दर्जी मास्टर, बैंड मास्टर, बिजली मास्टर ..... अरे कौन-कौन से मास्टर कहें! जहाँ देखिए वहीँ मास्टर और इतने मास्टरों के होने के बावजूद पढ़ाई रोजगार की तरह बिल्कुल नदारद. तुर्रा यह कि इसके बाद भी भारत का विश्वगुरू का तमगा अपनी जगह बरकरार. ये अलग बात है कि मेरे अलावा और कोई इस बात को मानने के लिए तैयार न हो, पर चाहूँ तो मैं खुद भी अपने को विश्वगुरू मान सकता हूँ. अरे भाई मैं अपने को कुछ मानूं या कहूं, कोई क्या कर लेगा? हमारे यहाँ तो केकेएमएफ (खींच-खांच के मेट्रिक फेल) लोग भी अपने को एमडी बताते हैं और कैंसर से लेकर एड्स तक का इलाज करते हैं और कोई उनकी डिग्री चेक करने की जरूरत भी नहीं समझता. तो विश्वगुरू बनने की तो कोई डिग्री भी नहीं होती

अखबार की बातें

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है मन में इनकार की बातें ऊपर से इकरार की बातें मतलब की है दुनिया सारी हर जगहा व्यापार की बातें हो भद्दी सी गाली कहते हैं प्यारी सरकार की बातें हत्या लूट डकैती चोरी यह सब है अखबार की बातें आये सुकूं जो बातें सुनकर मुद्दत हो गईं यार की बातें गुल गुलशन गुलफ़ाम की बातें आओ कर लें प्यार की बातें रतन

फिर क्या कहना ?

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लोकतंत्र में अपराधी को माल्यार्पण फिर क्या कहना ? जेल से आकर जनसेवा का शपथग्रहण फिर क्या कहना ? जिनके हाथ मे ख़ून के धब्बे चौरासी के दंगो के- बापू की प्रतिमा का उनसे अनावरण फिर क्या कहना ? एक विधेयक लाभों के पद पर बैठाने की खातिर। लाभरहित सूची मे उसका नामकरण फिर क्या कहना ? फाँसी पर झूले थे कितने जिस आज़ादी की खातिर - सिर्फ दाबती खादी ही के आज चरण फिर क्या कहना ? बार बार मैं दिखलाता हूँ अपने हाथों मे लेकर - नहीं देखते अपना चेहरा ले दर्पण फिर क्या कहना ? विनय ओझा स्नेहिल

बन टांगिया मजदूरों की दुर्दशा

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सरकारें देश भर में वृक्षारोपण के लिए करोडो रुपये खर्च करती है, लेकिन वन समाप्त होते जा रहे हैं. वनों को लगाने वाले बन टांगिया मजदूरों का आज बुरा हाल है जिन्होंने अंग्रेजों के ज़माने मे गोरखपुर मंडल को पेड लगाकर हरा भरा किया था. मंडल मे ३५ हजार से अधिक बन टांगिया मजदूर अपने ही देश मे निर्वासित जीवन जीने को विवश हैं. उन्हें राशनकार्ड, बेसिक शिक्षा,पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नही हैं.आख़िर स्वतंत्र भारत में भी ये परतंत्र हैं. घर के मारल बन मे गइली, बन में लागल आग. बन बेचारा का करे , करमवे फूटल बाय. ये अभिव्यक्ति एक बन टांगिया किसान की सहज अभिव्यक्ति है। महाराजगंज और गोरखपुर जिले के ४५१५ परिवारों के ३५ हजार बन टांगिया किसान दोनो जिलों के जंगलों मे आबाद हैं. नौ दशक पहले इनके पुरखों ने जंगल लगाने के लिए यहाँ डेरा डाला था. इस समय इनकी चौथी पीढ़ी चल रही है. सुविधाविहिन हालत मे घने जंगलों कि छाव मे इनकी तीन पीढी गुजर चुकी है. इनके गाव राजस्व गावं नही हैं इसलिये इन्हें सरकार की किसी योजना का लाभ नही मिलता है. हम स्वतंत्रता की ६० वी वर्षगांठ मना चुके , लेकिन अपने ही देश मे बन टांगिया मजदू

रू-ब-रू पाया

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तुमको अपने है चारसू पाया पल में इन्सान और जादू पाया मौत तुमको भी है पसंद नहीं जींद की तुझमें आरजू पाया सबकी खातिर है तेरे दिल में जगह न जुबां पर है दू-ब-दू पाया सीधे कहते हैं सब तुम्हें लेकिन मैंने तुझमें वो जन्गजू पाया बताएं किसको तेरे बारे में हर मुसीबत में चाह्जू पाया बदल चुकी है ये सारी दुनिया पर तुम्हें मैंने हू-ब-हू पाया मैं जानता हूँ कि हो योजन दूर यार तुमको है कू-ब-कू पाया सभी कहते हैं तुम जहाँ में नहीं याद जब आई रू-ब-रू पाया रतन

ख्वाहिश

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सिर्फ चाहे से पूरी कोई भी ख्वाहिश नहीं होती. जैसे तपते मरुस्थल के कहे बारिश नहीं होती.. हमारे हौसलों की जड़ें यूँ मज़बूत न होतीं - मेरे ऊपर जो तूफानों की नवाज़िश नहीं होती. . हमे मालूम है फिर भी सँजोकर दिल मे रखते हैं- जहाँ मे पूरी हर एक दिल की फरमाइश नहीं होती. . कामयाबी का सेहरा आज उनके सिर नहीं बंधता - पास जिनके कोई ऊँची सी सिफारिश नहीं होती. . हज़ारों आंसुओं के वो समंदर लाँघ डाले हैं- दूर तक तैरने की जिनमे गुंजाइश नहीं होती. . खुदा जब नापता है तो वो फीता दिल पे रखता है- उससे इन्सान की जेबों से पैमाइश नहीं होती.. -विनय ओझा स्नेहिल

ऐसे पत्थर ख़ूब हैं

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खो गए वीरानियों में ऐसे भी घर ख़ूब हैं कट रहे रानाई में दिन वो मुकद्दर ख़ूब हैं आना है जाना है सबको देख कर कुछ सीख लो खंडहर हैं कुछ महल दीवार जर्जर ख़ूब हैं राह दिखलाने की बातें लेखनी करती ही है जो सियासत को हिला दे ऐसे आखर ख़ूब हैं कहते हैं हर कोई देखो हम सिकंदर हम सिकंदर है खबर उनको नहीं ईश्वर पयम्बर ख़ूब हैं हो तसल्ली आंख को तस्वीर ऐसी तो दिखा देखने को दुनिया भर में यों तो मंजर ख़ूब हैं कांच के घर में बसें हो मत भुला इस बात को तोड़ जो डालेंगे पल में ऐसे पत्थर ख़ूब हैं साथ तेरे हमकदम जो गौर कर उन पर नजर शकुनी मामा ख़ूब हैं और मीर जाफ़र ख़ूब हैं है कवच सीने पे लेकिन रखना इसका भी ख़्याल पीठ में घुस जाने वाले यारों खंजर ख़ूब हैं रतन

गधा आजाद है चरने को

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आज सुबहे-सुबह हमको एक बार फिर एहसास हुआ कि हम आजाद हो गए हैं. पिछले कई साल से यह एहसास हो रहा है. क़रीब-क़रीब तबसे जबसे हम होस संभाले. हालांकि अइसा बिल्कुल नहीं है कि आजाद होने का ई एहसास हमको एक्के दिन होता हो. सही कहें तो रोजे हो जाता है. रस्ते में चलते हुए, दुकान में समान खरीदते हुए, स्कूलों में पढाई-लिखाई देखते हुए, न्यूज चैनलों पर ख़बरें देखते और अखबार पढते हुए ........ और जहाँ-जहाँ चाहें, वहाँ-वहाँ. देस तो हमारा आजाद हई है, इसमें कौनो दो राय नहीं है. कुछ हमारे मितऊ लोग हैं, जो बार-बार जाने क्यों और किससे जल-भुन के कहते हैं कि देस अजादे कहॉ हुआ. उन लोगों का असर है, कि कुछ अपनों दिल्जलापन है, कई बार हमहूँ अइसने सोच लेते हैं. कह भी देते हैं. पर आज हमको इस बात का बड़ा पक्का एहसास हुआ, एक जनी का मेल मिलने के बाद. ऊ मेल अंगरेजी में है और उसमें कहा गया है कि हम देसी-बिदेसी त्योहारी दिन तो ख़ूब मनाते हैं. इन दिनों पर एसेज-मेसेज भी भेजते हैं. एडवांस में सारा काम चलता है. पर ई जो अपना इन्डी-पिंडी-इन्सी डे है, इसको एडवांस में सेलेब्रेट करना अकसरे भूल जाते हैं. कौनो अधाई-बधाई नहीं देते हैं.

तकदीर ले आना मेरी

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मुस्कुराऊँ ख्वाब की ताबीर ले आना मेरी जो खबर सबको करे ताईर ले आना मेरी कर न पाओ ग़र भला तो क्यों बुरा हो सोचते है खलल मुझसे अगर शमशीर ले आना मेरी देख कर जिनको मेरे गुजरे ज़माने याद आये पास तेरे हैं जो वो तस्वीर ले आना मेरी सांस उखड़ी जा रही है धड़कनें भी मन्द हैं बाँध कर रखे इन्हें जंजीर ले आना मेरी लूट कर जो ले गए परछाई भी तनहाई में बोझ तो कुछ होगी ओ जागीर ले आना मेरी ग़र खुदा के पास जाना तो करम करना रतन मेरी खातिर भी थोड़ी तकदीर ले आना मेरी रतन

...अहले दुनिया होएगा

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सबका होना या न होना यह जरूरी है नहीं मेरे होने की इयत्ता अहले दुनिया होएगा आसमान भी होएगा सागर, जमीं भी होएगी हम अभी से क्यों बताएं, और क्या-क्या होएगा होंगी सब रंगीनियाँ, जन्नत-जहन्नुम होएँगे आने-जाने के लिए वां साजो-सामां होएगा तुम रहोगे, हम रहेंगे, फिर वही दुनिया हुई फिर वही साकी रहेगी और पैमां होएगा हो गए दुनिया से रुखसत जो सिकंदर लोग थे संग उनके ऐ जमाने अपना अफसां होएगा रतन

...यूं ही कभू लब खोलें हैं

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आने वाली नसलें तुम पे रश्क करेंगी हमअसरों जब उनको ये ध्यान आयेगा तुमने फिराक को देखा था इसे आप चाहें तो नार्सिसिया की इंतहां कह सकते हैं. जैसा मैने लोगों से सुना है अगर उस भरोसा कर सकूं तो मानना होगा वास्तव में फिराक साहब आत्ममुग्धता के बहुत हद तक शिकार थे भी. यूँ इसमें कितना सच है और कितना फ़साना, यह तो मैं नहीं जानता और इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं करूंगा कि आत्ममुग्ध होना सही है या ग़लत, पर हाँ इस बात का मलाल मुझे जरूर है कि मैं फिराक को नहीं देख सका. हालांकि चाहता तो देख सकता था क्या? शायद हाँ, शायद नहीं.... ये अलग है कि फिराक उन थोड़े से लोगों मैं शामिल हैं जो अपने जीते जी किंवदंती बन गए,पर फिराक के बारे में मैं जान ही तब पाया जब उनका निधन हुआ। 1982 में जब फिराक साहब का निधन हुआ तब मैं छठे दर्जे में पढता था. सुबह-सुबह आकाशवाणी के प्रादेशिक समाचार में उनके निधन की खबर जानकर पिताजी बहुत दुखी हुए थे। यूँ रेडियो बहुत लोगों के मरने-जीने की बात किया करता था, पर उस पर पिताजी पर कोई फर्क पड़ते मैं नहीं देखता था. आखिर ऐसा क्या था कि वह फिराक साहब के निधन से दुखी हुए. मेरे बालमन में यह कुतूहल उ

मैं तो बनूगा आकंत्वादी

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छोटू पंडित जिद पर अड़ गए हैं. अब वह बिल्कुल कुछ भी मानने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसे जैसे भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस के अध्यक्ष हो गए हों. देश कहा करे उसे जो कहना हो, पर मैं तो वही करूंगा जो मुझे करना है. अभी तीन दिन पहले तक वह पाइलट बनना चाहते थे, पर अब नहीं बनना चाहते वह पाइलट. आसमान में ऊंचे, और ऊंचे, और-और ऊंचे उड़ते एरोप्लेन आजकल उन्हें बिल्कुल नहीं लुभा रहे हैं. अब वह बादल से भी बडे भी नहीं होना चाहते. अब वह सिर्फ और सिर्फ आकंत्वादी बनना चाहते हैं. उनकी इस चाहत के पीछे बडे ठोस कारण हैं. करीब-करीब उतने ही ठोस जितने कि अमेरिका के साथ हुई भारत की परमाणु अप्रसार संधि, नंदीग्राम में किसानों की कुटाई, समुद्र में मौजूद पुल की तुडाई और जम्बूद्वीप के भारतखण्ड के कई राज्यों में सेज बिछाए जाने के पीछे हैं. शुरुआत कुछ यूँ हुई थी कि टीवी पर कोई कार्यक्रम आ रहा था बच्चों का. मास्टर और सलाहू मेरे साथ चाय पी रहे थे और छोटू पंडित मगन होकर देखे जा रहे थे प्रोग्राम. बिल्कुल खल्वाट खोपडीधारी और हीरो कहे जाने वाले एक सज्जन बच्चों से सवाल कर रहे थे. एक बच्चे से उन्होने पूछा, "बडे होकार आप क्या बनें

दोषी कौन?

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काशी जीवंत शहर है, देश में कुछ भी होता है तो काशी मे प्रतिक्रिया जरूर होती है. खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए तो खबरें मैनेज होती हैं, इसमे कोई दो राय नही है. लेकिन क्या मौत को भी मैनेज किया जा सकता है? क्या किसी टीवी के अदने से स्ट्रिंगर के कहने पर कोई मरने के लिए तैयार हो सकता है? ये भी बहस का विषय है कि आख़िर काशी में ही ज्यादातर ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं? पिछले साल घूरेलाल सोनकर ने लंका थाने के सामने आत्मदाह कर लिया था. इतेफाक से उन दिनों मैं बनारस में ही कार्यरत था. उसके आत्मदाह करने की धमकी संध्याकालीन दैनिक 'सन्मार्ग' मे छपी थी. उसी को पढ़कर CNN-IBN मे काम करने वाला लड़का लंका थाने पंहुचा था. घूरेलाल ने अन्य अखबारों को भी विज्ञप्ति भेजी थी. घूरेलाल ने आग लगा ली. वो मर गया. किसी चैनल ने वो खबर नहीं ली, लेकिन अखबार मे पहले पन्ने पर जलते हुए आदमी कि तसबीर आयी. उस समय भी उंगलिया चैनल पर ही उठी थीं. बनारस मे खबरें मैनेज होती हैं, इसमे कोई दो राय नहीं. लेकिन सवाल ये उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? टीवी और अखबार के लोग अपनी नौकरी के लिए खबर कवर करते हैं. जहाँ तक टीवी चैन

नेता के सिर बारिश जूतों की

अभी हाल की बात है. एक नेताजी पीट दिए गए. पिटे वह जम्मू-कश्मीर में. वाह क्या नजारे हैं! कहा जाता है कि धरती पर स्वर्ग अगर कहीँ है तो वहीं है. तो जनाब कल्पना करिये. इन खूबसूरत वादियों में पिटने का मजा भी अहा क्या मजा है! आइए अब अपको साफ-साफ बताते हैं. वह नेताजी थे बिलावर इलाके के सांसद लाल सिंह और जगह थी बिलावर. दिन मंगलवार था, यानी ३१ जुलाई २००७ को। बिजली कटौती से आजिज पब्लिक ने बिलावर बंद कर रखा था. संजोग से उसी बीच नेताजी पहुंच गए. प्रदर्शनकारियों ने उन्हें घेर लिया. अब यह कोई चुनाव का समय तो था नहीं कि नेताजी किसी की बात सुनते. चुनाव हो तो बात और होती है. तब तो नेताजी सुनने-सुनाने के लिए जनता जनार्दन को ढूँढते फिरते हैं. पर बेमतलब यानी ग़ैर चुनावी दौर में बेचारी पब्लिक की कौन सुनता है. जरूरत ही क्या है कि उसे सुना जाए. लिहाजा नेताजी ने नहीं सुनी. लेकिन पब्लिक भी कोई प्रवचन सुनने आई श्रद्धालु तो रह नहीं गई है अब. उसने घेर लिया और नेताजी को अपने दल-बल समेत जाना था गेस्ट हाउस. उन्होने पहले तो विनम्रतापूर्वक रास्ता मांगने की कोशिश की, लेकिन पब्लिक ने वह दिया नहीं. अब यह कोई चुनाव का समय

भोजन की ख़ुशी

पूरे देश से भुखमरी की खबरें आती रहती हैं. कालाहांडी पुरानी बात हो चली. महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या कर रहे हैं. बुंदेलखंड में खेती का बुरा हाल है. ऐसे में भूख क्यों न बिके! एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के दिल्ली संस्करण में राशिफल निकला। लिखा था कि आज कुम्भ राशि वालों को बढ़िया भोजन मिलेगा. अब हालत यहाँ तक पहुच गई कि ज्योतिषियों को बताना पड़ रहा है कि हिंदी अखबार पढने वालों में कुम्भ राशि वालों को खुश होना चाहिए, क्योंकि आज उन्हें भरपेट बढ़िया भोजन मिलने कि उम्मीद है. अब तक तो सरकारों पर ये आरोप लगते थे कि असन्तुलित विकास के चलते महानगरों की ओर पलायन हो रहा है. अब सरकार क्या करे जब देश के सारे भुक्खड़ राजधानी मे ही पहुच गए हैं. ज्योतिषियों की समस्या ये है कि पहले तो तोते से कागज उठ्वाते थे जिसमे लिखा होता था कि आप करोड़पति बनने वाले हैं. कचहरी के नजदीक का तोता मुकदमे जीतने की भविष्यवाणी करता था, लेकिन अब वो दिल्ली वालों को बतायेगा कि आज तुम्हे भरपेट भोजन मिल जायेगा. ये अलग बात है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला जीं भी उत्तर प्रदेश की हैं. इन्हें बुरा लगता है कि लोग दिल्ली आते हैं और दिल्ली को

केसर-केसर रूप तुम्हारा

केसर-केसर रूप तुम्हारा, चंदन-चंदन सांसें इन नैनों में बसी हुई हैं कुछ सपनीली आशें... मुझ में तुम हो, तुम में मैं हूं, तन-मन रमे हुए हैं, प्रेम सुधा बरसाती रहतीं अपनी दिन और रातें... मिलन हमारा जब भी होता अधर मौन रह जाते, नाजुक अधरों की चुप्पी भी कहतीं ढेरों बातें... दर्श तुम्हारा पाकर मन में कई गुलाब खिल जाते, फिर बहकी-बहकी बातें कहतीं मेरी दोनों आँखें... जब से दूर गई हो प्रिय, सुध-बुध उजड़ गई है, याद तुम्हारी सांझ सवेरे, अंखियों में बरसातें... दर्पण मेरा रुप तुम्हारा यह कैसा जादू है, जब भी सोचूं, तुमको सोचूं, हरदम तेरी यादें... -- अनिल आर्य

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