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Showing posts from November, 2007

मुझको मालूम है अदालत की हकीकत ....

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इष्ट देव सांकृत्यायन अभी-अभी एक ब्लोग पर नजर गई. कोई गज़ब के मेहनती महापुरुष हैं. हाथ धोकर अदालत के पीछे पड़े हैं. ऐसे जैसे भारत की सारी राजनीतिक पार्टियाँ पड़ गई हैं धर्मनिरपेक्षता के पीछे. कोई हिन्दुओं का तुष्टीकरण कर रहा है और इसे ही असली धर्मनिरपेक्षता बता रहा है. कोई मुसलमानों का तुष्टीकरण कर रहा है और इसे ही असली धर्मनिरपेक्षता बता रहा है. कोई सिखों का तुष्टीकरण कर रहा है और इसे ही असली धर्मनिरपेक्षता बता रहा है. गजब. ऐसा लगता है की जब तक भी लोग दोनों की पूरी तरह ऎसी-तैसी ही नहीं कर डालेंगे, चैन नहीं लेंगे. तो साहब ये साहब भी ऐसे ही अदालत के पीछे पड़ गए हैं. पहले मैंने इनकी एक खबर पढी कोर्ट के आदेश के बावजूद जमीन वापस लेने में लगे 35 साल . मैंने कहा अच्छा जी चलो, 35 साल बाद सही. बेचारे को मिल तो गई जमीन. यहाँ तो ऐसे लोगों के भी नाम-पते मालूम हैं जो मुक़दमे लड़ते-लड़ते और अदालत में जीत-जीत कर मर भी गए, पर हकीकत में जमीन न मिली तो नहीं ही मिली. उनकी इस खबर पर मुझे याद आती है अपने गाँव के दुर्गा काका की एक सीख. वह कहा करते थे कि जर-जोरू-जमीन सारे फसाद इनके ही चलते होते हैं और ये उनकी ह
ठोकरें राहों में मेरे कम नहीं। फिर भी देखो आँख मेरी नम नहीं। जख्म वो क्या जख्म जिसका हो इलाज- जख्म वो जिसका कोई मरहम नहीं। भाप बन उड़ जाऊंगा तू ये न सोच- मैं तो शोला हूँ कोई शबनम नहीं। गम से क्यों कर है परीशाँ इस क़दर - कौन सा दिल है कि जिसमें ग़म नहीं। चंद लम्हों में सँवर जाए जो दुनिया - ये तेरी जुल्फों का पेंचो-ख़म नहीं। दाद के काबिल है स्नेहिल की गज़ल- कौन सा मिसरा है जिसमें दम नहीं। -विनय ओझा ' स्नेहिल'
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अभी तक आपको केले से डर नहीं लगा होगा। कभी पैर के नीचे पड़ा होगा, आप गिरे होंगे तो थोड़ा डर जरूर लगा होगा। लेकिन अब जरा इधर गौर फरमाइये, हो सकता है आपको केले का खौफ भी सताने लगे।

कोर्ट पर हमला क्यों?

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सत्येन्द्र प्रताप वाराणसी में हुए संकटमोचन और रेलवे स्टेशनों पर विस्फोट के बाद जोरदार आंदोलन चला. भारत में दहशतगर्दी के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था जब गांव-गिराव से आई महिलाओं के एक दल ने आतंकवादियों के खिलाफ फतवा जारी किए जाने की मांग उठा दी थी. बाद में तो विरोध का अनूठा दौर चल पड़ा था। संकटमोचन मंदिर में मुस्लिमों ने हनुमानचालीसा का पाठ किया और जबर्दस्त एकता दिखाई. मुस्लिम उलेमाओं ने एक कदम आगे बढ़कर दहशतगर्दों के खिलाफ़ फतवा जारी कर दिया. इसी क्रम में न्यायालयों में पेश किए जाने वाले संदिग्धों के विरोध का भी दौर चला और वकीलों ने इसकी शुरुआत की। लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद में वकीलों ने अलग-अलग मौकों पर आतंकवादियों की पिटाई की थी।शुरुआत वाराणसी से हुई. अधिवक्ताओं ने पिछले साल सात मार्च को आरोपियों के साथ हाथापाई की और उसकी टोपी छीनकर जला डाली। आरोपी को न्यायालय में पेश करने में पुलिस को खासी मशक्कत करनी पड़ी. फैजाबाद में वकीलों ने अयोध्या में अस्थायी राम मंदिर पर हमले के आरोपियों का मुकदमा लड़ने से इनकार कर दिया। कुछ दिन पहले लखनऊ कचहरी में जैश ए मोहम्मद से संबद्ध आतंकियों की पिटाई क

....या कि पूरा देश गिरा?

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इष्ट देव सांकृत्यायन येद्दयुरप्पा ..... ओह! बड़ी कोशिश के बाद मैं ठीक-ठीक उच्चारण कर पाया हूँ इस नाम का. तीन दिन से दुहरा रहा हूँ इस नाम को, तब जाकर अभी-अभी सही-सही बोल सका हूँ. सही-सही बोल के मुझे बड़ी खुशी हो रही है. लगभग उतनी ही जितनी किसी बच्चे को होती है पहली बार अपने पैरों पर खडे हो जाने पर. जैसे बच्चा कई बार खडे होते-होते रह जाता है यानी लुढ़क जाता है वैसे में भी कई बार यह नाम बोलते-बोलते रह गया. खडे होने की भाषा में कहें तो लुढ़क गया. -हालांकि अब मेरी यह कोशिश लुढ़क चुकी है. क्या कहा - क्यों? अरे भाई उनकी सरकार लुढ़क गई है इसलिए. और क्यों? -फिर इतनी मेहनत ही क्यों की? -अरे भाई वो तो मेरा फ़र्ज़ था. मुझे तो मेहनत करनी ही थी हर हाल में. पत्रकार हूँ, कहीं कोई पूछ पड़ता कि कर्नाटक का मुख्यमन्त्री कौन है तो मैं क्या जवाब देता? कोई नेता तो हूँ नहीं की आने-जाने वाली सात पुश्तों का इल्म से कोई मतलब न रहा हो तो भी वजीर-ए-तालीम बन जाऊं! अपनी जिन्दगी भले ही टैक्सों की चोरी और हेराफेरी में गुजारी हो, पर सरकार में मौका मिलते ही वजीर-ए-खारिजा बन जाऊं. ये सब सियासत में होता है, सहाफत और शराफत मे

हाय! पीले पड़े कामरेड

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इष्ट देव सांकृत्यायन कामरेड आज बाजार में मिले तो हमने आदतन उनको लाल सलाम ठोंका. लेकिन बदले में पहले वो जैसी गर्मजोशी के साथ सलाम का जवाब सलाम से दिया करते थे आज वैसा उन्होने बिलकुल नहीं किया. वैसे तो उनके बात-व्यवहार में बदलाव में कई रोज से महसूस कर रहा हूँ, लेकिन इतनी बड़ी तब्दीली होगी कि वे बस खीसे निपोर के जल्दी से आगे बढ़ लेंगे ये उम्मीद हमको नहीं थी. कहाँ तो एकदम खून से भी ज्यादा लाल रंग के हुआ करते थे कामरेड और कहाँ करीब पीले पड़ गए. हालांकि एकदम पीले भी नहीं पड़े हैं. अभी वो जिस रंग में दिख रहे हैं, वो लाल और पीले के बीच का कोई रंग है. करीब-करीब नारंगी जैसा कुछ. हमने देखा है, अक्सर जब कामरेड लोग का लाल रंग छूटता है तो कुछ ऐसा ही रंग हो जाता है उन लोगों का. बचपन में हमारे आर्ट वाले मास्टर साहब बताए भी थे कि नारंगी कोई असली रंग नहीं होता है. वो जब लाल और पीला रंग को एक में मिला दिया जाता है तब कुछ ऐसा ही रंग बन जाता है. भगवा रंग कैसे बनता होगा ये तो में नहीं जानता, लेकिन मुझे लगता है कि शायद इसी में जब पीला रंग थोडा बढ़ जाता होगा तब वो भगवा बन जाता होगा. मैंने बडे-बूढों से सुना भी है

बोलो कुर्सी माता की - जय

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इष्ट देव सांकृत्यायन अधनींदा था. न तो आँख पूरी तरह बंद हुई थी और न खुली ही रह गई थी. बस कुछ यूं समझिए कि जागरण और नींद के बीच वाली अवस्था थी. जिसे कई बार घर से भागे बाबा लोग समाधि वाली अवस्था समझ लेते हैं और उसी समय अगर कुछ सपना-वपना देख लेते हैं तो उसे सीधे ऊपर से आया फरमान मान लेते हैं. बहरहाल में चूंकि अभी घर से भगा नहीं हूँ और न बाबा ही हुआ हूँ, लिहाजा में न तो अपनी उस अवस्था को समाधि समझ सकता हूँ और उस घटना को ऊपर से आया फरमान ही मान सकता हूँ. वैसे भी दस-पंद्रह साल पत्रकारिता कर लेने के बाद शरीफ आदमी भी इतना तो घाघ हो ही जाता है कि वह हाथ में लिए जीओ पर शक करने लगता है. पता नहीं कब सरकार इसे वापस ले ले या इस बात से ही इंकार कर दे कि उसने कभी ऐसा कोई हुक्म जारी किया था! बहरहाल मैंने देखा कि एक भव्य और दिव्य व्यक्तित्व मेरे सामने खडा था. यूरोप की किसी फैक्ट्री से निकल कर सीधे भारत के किसी शो रूम में पहुँची किसी करोड़टाकिया कार की तरह. झक सफ़ेद चमचमाते कपडों में. ऐसे सफ़ेद कपडे जैसे 'तेरी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफ़ेद क्यों?' टाईप के विज्ञापनों में भी नहीं दिखाई देते. कुरते से

अब वह नहीं डरेगा

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इष्ट देव सांकृत्यायन मैडम आज सख्त नाराज हैं. उनकी मानें तो नाराजगी की वजह बिल्कुल जायज है. उन्होने घोषणा कर दी है कि अब घोर कलयुग आ गया है. मेरी मति मारी गई थी जो मैने कह दिया कि यह बात तो मैं तबसे सुनता आ रहा हूँ जब मैं ठीक से सुनना भी सीख नहीं पाया था. कहा जाता था बेईमान तो मैं समझता था बेम्बान. गाया जाता था - "दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए" तो मैं समझता था "दिल चीत क्या है आप मेरी जान लीजिए" और वो जान भी लाइफ वाली नहीं केएनओडब्लू नो वाली. हालांकि तब उसे मैं पढ़ता था कनऊ. अब जब मैं चारों युगों के बारे में जान गया हूँ, जान गया हूँ कि सतयुग में हरिश्चंद्र के सत्यवादी होने का नतीजा क्या हुआ, त्रेतामें श्रवण कुमार और शम्बूक का क्या हुआ, द्वापर में बर्बरीक और अश्वत्थामा के साथ क्या हुआ तो मुझे कलयुग में आजाद, भगत सिंह या सुभाष के हाल पर कोई अफ़सोस नहीं होता. ये अलग बात है कि मैंने कलयुग को न तो किसी तरफ से आते देखा और न जाते देख रहा हूँ. पर नहीं साहब मैडम का साफ मानना है कि कलयुग आया है और वो जिस तरह इसका दावा कर रहीं हैं उससे तो ऐसा लगता है गोया वो अभी थोड़ी देर पह

कता

उम्मीद की किरण लिए अंधियारे में भी चल। बिस्तर पे लेट कर ना यूँ करवटें बदल। सूरज से रौशनी की भीख चाँद सा न मांग, जुगनू की तरह जगमगा दिए की तरह जल ॥ -विनय ओझा स्नेहिल

मौत की घाटी नहीं है मेरा देश

-दिलीप मंडल नंदीग्राम एक प्रतीक है। ठीक उसी तरह जैसा प्रतीक गुजरात में 2002 के दंगे हैं। जिस कालखंड में हम जी रहे हैं, उस दौरान जब कुछ ऐसा हो तो क्या हम कुछ कर सकते हैं? एक मिसाल इराक पर हुए अमेरिकी हमले के समय की है। जब इराक पर हमला होना तय हो चुका था तो एक खास दिन हजारों की संख्या में युद्धविरोधी अमेरिकी अपनी अपनी जगह पर एक तय समय पर खड़े हो गए। उन्होंने आसमान की ओर हाथ उठाया और कहा- रोको। अमेरिकी हमला तो इसके बावजूद हुआ। लेकिन विरोध का जो स्वर उस समय उठा, उसका ऐतिहासिक महत्व है। नंदीग्राम के संदर्भ में मेरा कहना है- आइए मिलकर कहें, उनका नाश हो!ऐसा कहने भर से उनका नाश नहीं होगा। फिर भी कहिए कि वो इतिहास के कूड़ेदान में दफन हो जाएं। ये अपील जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ वालों से भी है। नंदीग्राम में और सिंगुर में और पश्चिम बंगाल के हजारों गावों, कस्बों में सीपीएम अपने शासन को बचाए रखने के लिए जिस तरह के धतकरम कर रही है, उसे रोकने के लिए आपका ये महत्वपूर्ण योगदान होगा। आपको और हम सबको ये कहना चाहिए कि "मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश।" सीपीएम ने जुल्मो-सितम ढाने का ज

निशानी नहीं थी

हरि शंकर राढ़ी किसने कहा कि वो रानी नहीं थी. दुष्यंत की बस निशानी नहीं थी. तन में टूटन थी न मन में चुभन थी सच में सुबह वो सुहानी नहीं थी. लहरों सी उसमें लचक ही लचक थी पानी भी था और पानी नहीं थी. जल्दी से कलियों ने आँचल हटाया हालांकि उनपर जवानी नहीं थी. कैसे सुनाता वफ़ा की इबारत दिल पर लिखी थी जुबानी नहीं थी. फूलों के रस डुबाकर लिखी जो राढ़ी वो सच्ची कहानी नहीं थी.

अब खुला समलैंगिकों का पांच सितारा होटल

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सत्येन्द्र प्रताप दुनिया भी अजीब है। अमीर लोगों के शौक। पहले तो समलैंगिकों के लिए विवाह करने के लिए छूट मांगी गई और अब उनके लिए पांच सितारा होटल भी खुल गया। कोई गरीब आदमी रोटी मांगता है, मुफ्त शिक्षा की माँग करता है, उद्योगपतियों द्वारा कब्जियाई गई जमीन के लिए मुआवजा मांगता है तो देश चाहे जो हो, उसे गोली ही खानी पड़ती है। लेकिन इन विकृत मानसिकता वालों के लिए आंदोलन चले, उनकी मांगों को माना भी गया और होटल खुला, वो भी पांच सितारा। अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस-आयर्स मे समलैंगिकों के होटल खोला गया है! पांच सितारा होटल। ४८ कमरे हैं। पारदर्शी तल वाला स्विमिंग पुल है, साथ ही बार, रेस्टोरेंट भी. यह होटल शहर के सबसे पुराने इलाके san telmo मे खोला गया है।

तीस-पैंतीस बार

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एक सज्जन रास्ते पर चले जा रहे थे. बीच में कोई जरूरत पड़ने पर उन्हें एक दुकान पर रुकना पडा. वहाँ एक और सज्जन पहले से खडे थे. उनकी दाढी काफी बढी हुई थी. देखते ही राहगीर सज्जन ने मजाक उडाने के अंदाज में पूछा, 'क्यों भाई! आप दिन में कितनी बार दाढी बना लेते हैं?' 'ज्यादा नहीं! यही कोई तीस-पैंतीस बार.' दढियल सजान का जवाब था. 'अरे वाह! आप टू अनूठे हैं.' 'जी नहीं, में अनूठा-वनूठा नहीं. सिर्फ नाई हूँ.' उन्होने स्पष्ट किया.

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