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Showing posts from February, 2009

गन्ने के खेत में रजाई लेकर जाती पारो

देव डी को एक एक्सपेरिमेंटल फिल्म कहा जा रहा है। अंग्रेजी अखबारों में फिल्म समीक्षकों ने इस फिल्म को पांच-पांच स्टार से नवाजा है, वैसे फिल्म समीक्षकों के किसी फिल्म को स्टार देने की प्रणाली पर रामगोपाल वर्मा अपने ब्लाग पर पहले ही सवाल उठा चुके हैं। देव डी के डायरेक्टर अनुराग कश्यप खुद कई बार कह चुके हैं किसी फिल्म की समीक्षा के बजाय फिल्मकार की समीक्षा की जानी चाहिये। अनुराग कश्यप की फिल्म को समझने के लिए यह जरूरी है कि अनुराग कश्यप की समीक्षा की जाये। रामगोपाल वर्मा की फिल्म सत्या से अनुराग कश्यप भारतीय फिल्म पटल पर एक फिल्म लेखक के रूप में मजबूती से उभरे थे, और यह फिल्म कथ्य और मेकिंग के स्तर पर सही मायने में एक एक्सपेरिमेंटल फिल्म थी। रामगोपाल वर्मा ने पहली बार अपराध की दुनिया को मानवीय नजरिये से देखा था और मेकिंग में भी उन्होंने एसे शाट लिये थे, जो वास्तविक जीवन का अहसास कराते थे। अनुराग कश्यप इस टीम का हिस्सा थे, और उन्होंने लेखनी के स्तर पर इस फिल्म को शानदार मजबूती प्रदान की थी। रामगोपाल वर्मा के स्कूल से निकलकर अनुराग कश्यप ने ब्लैक फ्राइडे बनाई थी, जो अपने कथ्य के कारण कोर्ट-

अथातो जूता जिज्ञासा-21

अब जहाँ आदमी की औकात ही जूते से नापी जाती हो, ज़ाहिर है सुख-दुख की नाप-जोख के लिए वहाँ जूते के अलावा और कौन सा पैमाना हो सकता है! तो साहब अंग्रेजों के देश में सुख-दुख की पैमाइश भी जूते से ही होती है. अब देखिए न, अंग्रेजी की एक कहावत है : द बेस्ट वे टो फॉरगेट योर ट्र्बुल्स इज़ टु वियर टाइट शूज़. मतलब यह अपने कष्ट भूलने का सबसे बढ़िया तरीक़ा यह है कि थोड़ा ज़्यादा कसे हुए जूते पहन लीजिए. निश्चित रूप से यह कहावत ईज़ाद करने वाले लोग बड़े समझदार रहे होंगे. अपने नाप से छोटा जूता पहन कर चलने का नतीजा क्या होता है, यह हम हिन्दुस्तानियों से बेहतर और कौन जानता है. यह अलग बात है कि यह कहावत अंग्रेजों ने ईज़ाद की, लेकिन नाप से छोटे जूते पहन कर चलने की कवायद तो सबसे ज़्यादा हम भारतीयों ने ही की है. हमने चपरासी के लिए तो शैक्षणिक योग्यता निर्धारित की है, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के लिए आज भी हमारी मुलुक में किसी शैक्षणिक योग्यता की ज़रूरत नहीं है. यह हाल तब है जबकि आजकल हमारे यहाँ आप कहीं से भी डिग्रियाँ ख़रीद सकते हैं.  मतलब यह कि जो ख़रीदी हुई डिग्रियाँ भी अपनी गर्दन में बांधने की औकात न रखता हो वह भी इस देश का

अथातो जूता जिज्ञासा-20

फ्रांस के इतिहास और उसके चलते उसकी संस्कृति पर जूते का असर कितना जबर्दस्त है, यह बात अब साफ़ हो गई. एक बात और शायद आप जानते ही हों और वह यह कि दुनिया भर में पिछली दो-तीन शताब्दियों से फ्रांस को आधुनिकता का पर्याय माना जाता है. बिलकुल वैसे ही जैसे जैसे कि हमारे भारत महान को रीढ़रहितता का. इससे बड़ी बात यह कि फ्रांस की जो आम जनता है, वह अंग्रेजी जानने को बहुत ज़रूरी नहीं समझती है. इससे भी ज़्यादा शर्मनाक बात यह है कि अपने को अंग्रेजी न आने पर वहाँ के लोगों को कोई शर्म भी नहीं आती है. छि कितने गन्दे लोग हैं. है न! लेकिन नहीं साहब! दुनिया अजूबों से भरी पडी है और उन्हीं कुछ हैरतअंगेज टाइप अजूबों में एक यह भी है कि बाक़ी दुनिया को भी उनके ऐसे होने पर कोई हैरत, कोई एतराज या कोई शर्म नहीं है. इससे ज़्यादा हैरत अंगेज बात जब मैं बीए  में पढ़ रहा था तब मेरे अंग्रेजी के प्रोफेसर साहब ने बताई थी. वह यह कि एक ज़माने में अंग्रेज लोग फ्रेंच सीखना अपने लिए गौरव की बात समझते थे. ठीक वैसे ही जैसे आजकल हम लोग अंग्रेजी सीखकर महसूस करते हैं. किसी हद तक ऐसा वे आज भी समझते हैं. अब ऐसे जूताप्रभावित देश का जिस इतना गहर

मज़ाक का लाइसेंस

डिस्क्लेमर : अथातो जूता जिज्ञासा की सींकड तोड़्ने के लिए आज एक बार फिर क्षमा करें. कल आपको सुबह 6 बजे जूता जिज्ञासा की 20वीं कड़ी मिल जाएगी. आज आप कृपया यह झेल लें. मेरी यह लुक्कड़ई मुख्यत: दो ब्लॉगर बन्धुओं को समर्पित है. किन्हें, यह जानने के लिए आगे बढ़ें और इसे पढ़ें..........   काऊ बेल्ट में एक बात बहुत बढिया हुई है पिछ्ले दो-तीन दशकों में. आप मानें या न मानें लेकिन मैं ऐसा मानता हूँ. पहले लोग नेता चुनते थे, इस उम्मीद में कि ये हमारी नेतागिरी करेगा. उस पर पूरा भरोसा करते थे, कि जब हम भटकेंगे तब ये हमको रास्ता दिखाएगा. अगर कभी ऐसा हुआ कि हम हिम्मत हारने लगे तब ये हमें हिम्मत बंधाएगा. हमको बोलेगा कि देखो भाई इतनी जल्दी घबराना नहीं चाहिए. तुम सही हो अपने मुद्दे पर, लिहाजा तुम लड़ो और हम तुम्हारे साथ हैं. अगर कोई हमें दबाने की कोशिश करेगा तो यह हमारी ओर से लड़ेगा. हमे हर जगह उभारने की ईमानदार कोशिश करेगा. सुनते हैं कि पहले जब देश को गोरे अंग्रेजों से आज़ादी मिली तब शुरू-शुरू में कुछ दिन ऐसा हुआ भी. दो-चार नेता ग़लती से ऐसे आ गए थे न, इसीलिए. फिर धीरे-धीरे नेता लोगों ने लोगों की उम्मीदों को ठ

अथातो जूता जिज्ञासा-19

हाँ तो हम बात कर रहे थे, विदेशों में जूते के प्रताप का. तो सच यह है कि विदेशों में भी जूते का प्रताप भारतवर्ष से कुछ कम नहीं रहा है. बल्कि मुझे तो ऐसा लगता है कि कई जगह भारत से भी ज़्यादा प्रताप रहा है जूते का. इसी क्रम में भाई आलोक नन्दन ने पिछले दिनों जिक्र किया था फ्रांस की एक रानी मेरी अंतोनिएत का. यह जो रानी साहिबा थीं, ये पैदा तो हुई थीं ऑस्ट्रिया में सन 1755 में, लेकिन बाद में फ्रांस पहुंच गईं और वहीं की रानी हुईं. जैसा कि भाई आलोक जी ने बताया है ये अपने दरबारियों पर जूते चलाया करती थीं. बेशक यह जानकर आपको दुख हो सकता है और मुझे भी पहली बार तो यह लगा कि यह कैसी क्रूर किस्म की रानी रही होंगी. लेकिन साहब उनकी क्रूरता की कहानियों का मामला दीगर मान लिया जाए तो उनकी जूते चलाने की आदत कुछ बुरी नहीं लगती रही होगी. ख़ास तौर से उनके दरबारियों को. केवल इसलिए नहीं कि वे दरबारी थे और दरबारियों को आम तौर पर जूते खाने की आदत होती ही है. अव्वल तो किसी के सही अर्थों में दरबारी होने की यह प्राथमिक टाइप की योग्यता है कि वह जूते खाने में न सिर्फ़ माहिर हो, बल्कि इसमें उसे आनन्द भी आता हो. जूते खाकर

हरा दीजिए न, प्लीज़!

(डिस्क्लेमर : आज जूता कथा को सिर्फ़ एक बार के लिए कुछ अपरिहार्य कारणों से ब्रेक कर रहा हूँ. आशा है, आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे. आशा है, आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे. कल से फिर अथातो जूता गिज्ञासा जारी हो जाएगी और आप उसकी 19वीं कडी पढ सकेंगे. तब तक आप इसका आनन्द लें. धन्यवाद.) "अले पापा दादा को गुच्छा आ गया." "क्या गुच्छा आ गया? कौन से दादा को कौन सा गुच्छा आ गया?" "अले वो दादा जो टीवी में आते हैं, हल्ला मचाने के बीच, उनको औल वो वाला गुच्छा जो आता है." "ये कौन  कौन सा गुच्छा है भाई जो आता है. आम का, कि मकोय का, कि अंगूर का या और किसी चीज़ का?" "ना-ना, ये छब कुछ नईं. वो वाला गुच्छा जो आता है तो लोग श्राब दे देते हैं. वो दादा तब लोपछभा में कहते हैं कि जाओ. तुम छब हाल जाओ." लीजिए साहब! छोटी पंडित की बात स्पष्ट हो गई. ये उसी दादा की बात कर रहे हैं जिनको लोप, अंहं लोकसभा में गुस्सा आया है. वैसे लोकसभा को चाहे अपनी तोतली भाषा में सही पर उन्होने नाम सही दिया. आख़िर लोक के नाम पर बनी जिस सभा से लोक की चिंता का पूरी तरह लोप ही हो चुका हो, उसे लोपस

अथातो जूता जिज्ञासा-18

अब बात जूता शास्त्र या जूतापैथी की नहीं, अपितु समग्र जूताशास्त्रीय परम्परा के अनुशीलन की है तो इसकी शुरुआत हमें आधुनिक भारतीय नियमानुसार पश्चिम से ही करनी होगी. मैं जानता हूँ कि अगर मैं सीधे भारत से ही इस परम्परा का अनुशीलन करने लगा तो चाहे वह कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों न होअ, विद्वान (सॉरी मेरा मतलब इंटेलेक्चुल्स से था) लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे. अब देखिए न! हम शेक्सपपीयर को इंग्लैण्ड का कालिदास नहीं, कालिदास को भारत का शेक्सपीयर कहते हैं. मम्मट और विश्वनाथ जैसे आचार्यों के रहते हम कबीर, गोरख, तुलसी और रैदास के काव्य को प्लेटो की कसौटी पर कसते हैं. तो भला इस परम्परा को अगर मैंने केवल भारतीय कहा तो आप कैसे मान लेंगे. अभी देखिए, भाई अरविन्द जी इधर बताने लगे हैं कि भोले बाबा की पूजा बहुत पहले से दूसरे देशों में भी होती रही है. मुझे पक्का यक़ीन है इस बार वे ब्लॉगर भी महाशिवरात्रि पर अभिषेक करने जाएंगे, जो पिछली बार तक नहीं जाते रहे हैं. आख़िर अब मामला ग्लोबल है न भाई! असल में हम भारतवर्षियों की एक बहुत ही पुरानी आदत ये है कि अपनी जो भी चीज़ें हमें बुरी लगती हैं (चाहे वास्तव में वे कितनी भ

अथातो जूता जिज्ञासा-17

यूँ तो चिकित्सा पक्ष को 16वें अध्याय में ही सम्पूर्ण मान लेने का मेरा इरादा था, लेकिन कुछ चिट्ठाकार साथियों की टिप्पणियों के ज़रिए जो आदेश आए उसके मुताबिक मुझे इसे विस्तार देना ज़रूरी लगा. इधर व्यस्तता का आलम कुछ ऐसा रहा कि लिखना सम्भव नहीं रहा, इसलिए समय से मैं पोस्ट नहीं कर सका. व्यस्तता आज भी कुछ ऐसी ही रही और रात को क़रीब साढे 11 बजे लौट कर लिखने का इरादा तो बिलकुल भी नहीं था. पर अब तो धन्यवाद ही कहना पडेगा उन सर्वथा अपरिचित पडोसी महोदय-महोदया को, जिनके यहाँ शायद शादी है और फिल्मी-ग़ैर फिल्मी गाने इतनी ऊंची आवाज़ में बजाए जा रहे हैं कि बेचारे कान के सही-सलामत होने पर अफ़सोस हो रहा है. मुझे याद आ रहा है, काफ़ी पहले मैंने एक फिल्म देखी थी- 'अग्निसाक्षी'. उसमें नाना पाटेकर हीरो थे और उनके कोई बगलगीर अपना जन्मदिन मना रहे थे. देर रात तक वे भी ऐसा कानफाडू शोर मचाए हुए थे. काफ़ी देर तक बर्दाश्त करने के बाद जब नाना साहब से नहीं रहा गया तो उन्होने अपनी बन्दूक उठाई और पहुंच गए उनके तम्बू-कनात में. चलाने लगे दनादन गोलियां. उनका डायलॉग ठीक-ठीक तो याद नहीं, पर उसका लब्बोलुआब यह था कि साले तुमने

अथातो जूता जिज्ञासा-16

जूता जी की भूमिका भारतीय चिकित्सा शास्त्र में केवल यहीं तक सीमित हो, ऐसा भी नहीं है. कई अन्य महकमों की तरह चिकित्सा जगत या कहें कि महकमे में भी जूते को एक सम्मानजनक हैसियत प्राप्त है. इसका एहसास मुझे बहुत जल्दी हो गया. तभी जब मैं गोरखपुर में था. हुआ यूँ कि एक बेचारे आम आदमी का एक्सीडेंट हो गया. घर-परिवार और गाँव-बाज़ार के लोगों की नज़र में वह सिर्फ़ आम ही नहीं, बल्कि कुछ-कुछ आवारा किस्म का आदमी था. अब ज़ाहिर है, ऐसी स्थिति में उसकी कोई हैसियत तो थी नहीं. फिर भी उसे लेकर लोग तुरंत अस्पताल आए. अब चूंकि वह आवारा ही था, पैसा-कौडी तो उसके या परिवार वालों के पास कुछ था नहीं,  लिहाज़ा उसे किसी प्राइवेट अस्पताल में नहीं जाया जा सकता था. उधर सरकारी अस्पतालों से गम्भीर मरीजों के ठीक होकर वापस घर लौटने की परम्परा आप जानते ही हैं कि आज तक शुरू नहीं हो सकी है. इसके बावजूद उसे सरकारी अस्पताल मे ही भरती करवाया गया. सरकारी अस्पताल में आने के बाद पहले तो उसे भर्ती करने से ही मना कर दिया गया, पर इसी बीच उसका कोई उसके ही जैसा यानी आवारा किस्म का मित्र आ गया और उसके दबाव पर उसे भरती कर लिया गया. हालांकि उसके

अथातो जूता जिज्ञासा-15

जूते के प्रताप की सीमा यहीं सम्पन्न नहीं हो जाती है. नज़र उतारने या बुरी नज़र से अपने भक्तों को बचाने की जूता जी सामर्थ्य तो उनकी शक्तिसम्पन्नता की एक बानगी भर है. वस्तुतः उनकी कूवत इस सबसे भी कहीं बहुत ज़्यादा है. पता नहीं आधुनिक विज्ञान वालों ने अभी मान्यता दी या नहीं, लेकिन सच यह है कि कई दारुण किस्म के रोगों के इलाज में भी जूता जी का प्रयोग धडल्ले से किया जाता है. आप ठीक समझ रहे हैं. मेरा इशारा मिरगी नामक रोग की ओर ही है. नए ज़माने के पढे-लिखे टाइप समझे जाने वाले लोग फिट्स कहते हैं. पता नहीं इसे फिट्स कहना वे कितना फिट समझते हैं, लेकिन एक बात ज़रूर है और वह यह कि फिट के इस बहुवचन का प्राथमिक उपचार वे भी जूते से ही करते हैं. यक़ीन मानिए, जूते का ऐसा भी उपयोग हो सकता है, यह अपने पिछडे गाँव में रहते हुए मुझे मालूम नहीं हो पाया. जूता जी की इस सामर्थ्य का पता मुझे तब चला जब मैं शहर में आया. हुआ यों कि एक दिन एक सरकारी दफ्तर में एक सज्जन को फिट्स पड गया. पहले तो लोगों ने यह समझा कि वह शायद फिट हो गए हैं. ऐसा लोगों ने इसलिए समझा क्योंकि वे सज्जन ऐसे लोगों में शामिल थे जिनके लिए खाने से ज़्यादा

अथातो जूता जिज्ञासा-14

इससे इतना तो जाहिर हो ही गया कि अपनी व्यवस्था में जूते को हमने सिर पर बैठा रखा है. एक और बात हम सुनिश्चित तौर पर कह सकते हैं कि किसी ऐसी चीज़ को किसी देश की व्यवस्था में सिर पर प्रतिष्ठित किया ही नहीं जा सकता है जिसे उस देश के लोक ने अपने सिर पर स्थान न दिया हो. लिहाजा अब इस बात पर आपको कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जूते को हमारे लोक ने भी अपने सिर पर बैठा रखा है और लोक ने उसे यह महत्वपूर्ण स्थान ऐसे ही नहीं दे दिया है. इसके मूल में कुछ अत्यंत वैज्ञानिक टाइप के कारण निहित हैं. भारत के कई शहरों के रिहायशी इलाकों में आपको बेहद ख़ूबसूरत इमारतें बनी दिख जाएंगी. अगर ग़ौर फरमाएंगे तो पाएंगे कि उनमें से कई घरों के छज़्जे से जूते लटके होते हैं. आप क्या सोचते हैं कि यह ग़लती से लटक रहे हैं. अरे नहीं जनाब! ऐसा सोचने की ग़लती भी मत करिएगा. असल में ये जूते बहुत सोच-समझ कर लटकाए गए होते हैं. ये जूते घरों के लिए वही काम करते हैं जो बच्चों के सिर पर डिठौने. एक ऐसी दुनिया में जहाँ मुट्ठी भर लोगो के पास सौ-सौ महल हों और करोडों लोगों के पास ढंग की झोपडी भी न हो, वहाँ अच्छे मकानों को देख कर लोगों द्वारा आहें

अथातो जूता जिज्ञासा-13

इन मुश्किल कलाओं में विशेषज्ञता हमें ऐसे ही नहीं मिल गई है. अगर ग़ौर से देखें तो इसकी जडें हमारी शिक्षा व्यवस्था के प्राथमिक स्तर से ही मिलनी शुरू हो जाती है. हम उस शिक्षा व्यवस्था की बात नहीं कर रहे हैं जो गाँवों में तथाकथित शिक्षा मित्रों के भरोसे टाट-पट्टी पर चलती है. वह शिक्षा तो सिर्फ़ कहने के लिए शिक्षा है. इसे लेकर भविष्य में सरकार की जो योजनाएं हैं उनसे ही आप इसका अन्दाजा लगा सकते हैं. कौन नहीं जानता कि आने वाले दिनों में इसे ग्रामसभाओं के हवाले कर दिया जाना और वह भी पूरी तरह उनके अपने ख़र्चे-पानी के भरोसे. ज़रा सोचिए, जो अपना ख़र्चा नहीं चला सकता वह मास्टरों और बच्चों का ख़र्च भला किस बूते संभालेगा? ज़ाहिर है, शिक्षा की यह व्यवस्था सिर्फ़ नाम की है. असली शिक्षा व्यवस्था तो वही है जो पूरी तरह अभिभावकों के ख़र्चे पर उनके ही दम से चलती है. हर वह शख़्स जो चाहता है कि उसके बच्चे किसी लायक बन सकें, शिक्षा की उसी प्रणाली का अनुसरण करता है. भले इसके लिए उसे अपने अन्य ज़रूरी ख़र्चों में कटौती करनी पडे. उस शिक्षा व्यवस्था की ख़ूबी यही है कि उसमें किताबें और कॉपियां तो सिर्फ़ बच्चों को स्पॉंडिलाइटिस

अथातो जूता जिज्ञासा-12

यह तो आप जानते ही हैं कि आजकल अपने देश में ऐसी सभी कलाओं के व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था हो गई है जिनकी कुछ भी उपयोगिता है. वैसे पहले ये कलाएं लोग अपने-आप सीखते थे. या तो प्रकृति प्रदत्त अपनी निजी प्रतिभा के दम पर, या फिर अपने कुल खानदान की परम्परा से या फिर किसी योग्य व्यक्ति को गुरु बना कर. हालांकि यह प्रक्रिया बहुत ही मुश्किल थी. पहली तो मुश्किल इसमें यह आती थी कि यदि किसी योग्य पात्र में स्वयमेव यह प्रतिभा हो तो भी उसे इसका ठीक-ठीक उपयोग करने के लिए पहले कुछ प्रयोग करने पडते थे. इन प्रयोगों के दौरान शुरुआती दौर में बहुत सारी ग़लतियां होती थीं. ख़ुद ही ग़लती कर-कर के आदमी को यह सब सीखना पडता था. इसके बावजूद वह इसमें पूर्ण रूप से निष्णात नहीं हो पाता था. क्योंकि वस्तुत: उन्हें उसकी जानकारी ही सिस्टेमेटिक नहीं हो पाती थी. जो लोग अपनी कुल परम्परा ऐसी महान विद्याएं सीखते थे उन्हें भी पूरी जानकारी इसलिए नहीं हो पाती थी क्योंकि उन्हें दूसरे गणमान्य कुलों के प्रयोगों और अनुप्रयोगों की जानकारी नहीं हो पाती थी. वस्तुत: कुल परम्पराओं के ज्ञान और पर्यवेक्षण की भी सीमा होती है, बिलकुल वैसे ही

अथातो जूता जिज्ञासा-11

पाणिग्रहण यानी विवाह जैसे संस्कार में हमारे यहाँ फ़ालतू टाइप की चीज़ों को कतई जगह नहीं दी जाती. इस संस्कार में  हम उन्हीं चीज़ों को अहमियत देते हैं जो हमारे जीवन से साँस की तरह जुडी हैं और जिनका बहुत गहरा अर्थ होता है. अब जिस चीज़ का इतना गहरा अर्थ है कि वह विवाह जैसे संस्कार से जुडी है, वह जीवन के अन्य हिस्सों से जुडी न हो, ऐसा कैसे हो सकता है! पढाई से जूतों का कितना गहरा जुडाव है यह हम आपको पहले ही बता चुके हैं. हमारे सुधी पाठकगण को याद भी होगा. हमारे ज़माने में तो माता-पिता, चाचा-ताऊ और गुरुजी से लेकर बडे भाई-बहन और यहाँ तक कि कभी-कभी अन्य क़रीबी रिश्तेदार भी पढाई के मामले में बच्चों पर इसका इस्तेमाल कर लिया करते थे. नतीजा आप देख ही रहे हैं - हम 12 माइनस 1 भेड और 1 प्लस 1 शेर वाले सवाल भी आज तक ठीक-ठीक हल कर सकते हैं. दूसरी तरफ़ आज का ज़माना है. टीचरों और अन्य लोगों की तो बात ही छोडिए, यहाँ तक कि माता-पिता भी अब जूता जी का इस्तेमाल नहीं कर सकते. बच्चों की समझदारी है कि बिलकुल भारतीय लोकतंत्र होती जा रही है. भेड का सवाल भी वैसे ही जोडते हैं जैसे बकरी वाला और शेर वाला सवाल भी वैसे ही सॉल्व कर

अथातो जूता जिज्ञासा-10

हालांकि शादियों में सालियों द्वारा जूते चुराए जाने की परम्परा बहुत लम्बे अरसे से चली आ रही है. यह एक सुखद बात है कि 21वीं शताब्दी जबकि ख़ुद शादी की परम्परा यानी विवाह संस्था ही ख़तरे में है, तो भी अगर कहीं कोई नौजवान विवाह का रिस्क लेता है, तो वह बडी ख़ुशी से इस परम्परा का निर्वाह करता है. संगीता पुरी जी ने इस ओर ख़ास तौर से मेरा ध्यान दिलाते हुए इस पुनीत परम्परा पर प्रकाश डालने आदेश किया है. अब उन्हें जूती चुराने का अनुभव है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता, पर मुझे ख़ुद अपने जूते चुराए जाने का प्रीतिकर-सह-त्रासद अनुभव ज़रूर है. साथ ही, पूरे 14 साल बीत जाने के बावजूद अभी तक यह भी याद है कि अपने वे नए और परमप्रिय जूते वापस कैसे पाए और उतनी देर में मैंने क्या-क्या सोच डाला. अब देखिए कि 14 वर्षों में भगवान राम का वनवास और 13 वर्षों में ही पांडवों का वनवास व अज्ञातवास दोंनों बीत गए थे, पर मेरा अहर्निश कारावास अभी तक जारी ही है और कब तक जारी रहेगा, यह मैं तो क्या कोई भी नहीं जानता है. मेरे घबराने की एक बडी वजह यह थी कि मुझे पहले से इस बारे में कोई आभास नहीं था. असल में हमारे यहाँ जब कोई नया योद्धा

अथातो जूता जिज्ञासा-9

उन मित्र ने यह जो जूता लिया था आठ हज़ार वाला वह कौन से ब्रैंड का था, यह तो मैं भूल गया. वैसे भी मैंने उस जूते की बैंडिंग का कोई अनुबन्ध नहीं लिया है. पर सन ज़रूर याद है. वह सन 2006 था. संयोग से इस त्रासद अनुभव से मैं ख़ुद भी गुज़र चुका हूँ. बल्कि इस मामले में मैं उनसे काफ़ी सीनियर हूँ. इसीलिए मैं उनके चहकने की वजह तो समझ ही सकता था, इस चहकनशीलता का भविष्य भी मुझे पता था. किसी भी ज्योतिषी की तुलना में ज़्यादा ज़ोरदार दावे के साथ मैं तभी कह सकता कि इस चहकनशीलता के अहकनशीलता में बदलते तीन साल से ज़्यादा नहीं लगेंगे. हैरत कि उनकी चहकनशीलता बमुश्किल एक साल के भीतर ही अहकनशीलता में तब्दील हो गई. मामले की गति इतनी सुपरफास्ट टाइप होगी, ऐसा मैने भी नहीं सोचा था. मैंने तो अपने अनुभव के आधार पर सोचा था, जब पत्नी पहले साल चन्द्रमुखी, दूसरे साल सूरजमुखी और तीसरे साल ज्वालामुखी होती थी. अब समय दूसरा है. केवल 12 वर्षों में समय के इस तरह बदलने पर मुझे हैरत हुई. पर तभी एक हाइटेक मित्र ने बताया कि देखिए 20वीं शताब्दी तक आदमियों की पीढी 27 साल में बदला करती थी. यहाँ दस साल में मोबाइल की चौथी पीढी आ रही है. दोनो

अथातो जूता जिज्ञासा-8

यक़ीन मानें, तबीयत सिर्फ़ आदमियों की ही नहीं, कुछ जूतों की भी बहुत रंगीन होती है. एक बात मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि यहाँ मैं केवल कुछ जूतों की बात कर रहा हूँ. मेरी इस बात को पूरी जूता बिरादरी पर किसी आक्षेप के रूप में क़तई न लिया जाए. और फिर हमारे समाज में तो रंगीन मिज़ाज़ होना कुछ ग़लत समझा भी नहीं जाता है. अव्वल तो इसे एक उपलब्धि समझा जाता है. क्योंकि पहली तो बात यह कि रंगीन मिज़ाज़ी के लिए आदमी के भीतर बहुत दमखम होने की ज़रूरत होती है और दूसरी यह कि मर्दानगी सिर्फ़ रंगीन मिज़ाज़ होने में नहीं, अपितु अपनी रंगीनमिज़ाज़ी को मेंटेन करने में है. एक ऐसे समय में जबकि सादा मिज़ाज़ को मेंटेन करने में ही तमाम लोगों की नसें ढीली हो जा रही हैं, भला रंगीनमिज़ाज़ी कोई क्या मेंटेन करेगा? हालात पर नज़र डालें तो पता चलता है कि रंगीनमिज़ाज़ी मेंटेन कर पाना तो अब केवल जूतों के ही बस की बात रह गई है. (जूतों की सामर्थ्य के बारे में अगर आपको कोई संशय रह गया हो तो कृपया इसी महान ग्रंथ के पन्ने पलट कर सिंहावलोकन कर लें). हालांकि जूतों में भी रंगीनमिज़ाज़ी सबके बस की बात नहीं है. अरे भाई बिलकुल वैसे ही जैसे आदमियों में यह सबके

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