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Showing posts from August, 2013

मैंगो मैन का बनाना रिपब्लिक

इष्ट देव सांकृत्यायन भारतीय स्त्री को अगर कोई चीज़ सबसे ज़्यादा पसंद है तो वह है सोना. केवल क्रिया ही नहीं , संज्ञा और यहां तक कि विशेषण के रूप में भी. मेरे एक मामाजी तो कहा करते थे कि महिला लोगों का अगर वश चले तो पति को भी बेच कर सोना ख़रीद लें. जहां तक बात पति टाइप लोगों की है , तो वे उनकी सोने की मांग को केवल क्रिया के रूप में ही समझना चाहते हैं. लेकिन वाक़ई सोना कितना ज़रूरी है और आम आदमी के लिए इसकी कितनी अहमियत है , यह बात अब जाकर समझ में आई. तब जब भारत सरकार ने तय कर लिया है कि वह आम आदमी से सोना ख़रीदेगी. पहले तो मुझे लगा कि यार मैं भी आम आदमी हूं और इस लिहाज़ से मुझे भी   सोना बेचना चाहिए. जब सरकार ही ख़रीदेगी तो ज़ाहिर है कि अच्छा दाम देगी. श्रीमती जी से कहा कि सरकार सोना ख़रीदने की बात कर रही है , ऐसा करते हैं कि हम लोग भी कुछ बेच देते हैं. इतना कहना था कि श्रीमती जी फायर हो गईं , ‘ आप क्या समझते हैं , आपका पड़े-पड़े सोना सरकार ख़रीदेगी ? अगर क्रिया में सोना सरकार को ख़रीदना होता तो उसके लिए उसे जनता से गुहार लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. इसके लिए उसकी पुलिस ही काफ

कस्तूरी कुंडल बसै...

इष्ट देव सांकृत्यायन   पता नहीं , भ्रष्टाचार जी ने कुछ लोगों का क्या बिगाड़ा है जो वे आए दिन उनके पीछे ही पड़े रहते हैं। कभी धरना दे रहे हैं कि भ्रष्टाचार मिटाओ , कभी प्रदर्शन , नारेबाजी , रास्ताजाम... और न जाने क्या-क्या! कभी दिल्ली का रामलीला मैदान भर डाला और कभी जंतर-मंतर पर लोगों का आना-जाना दुश्वार कर दिया। ख़ैर , भ्रष्टाचार जी को इससे फ़र्क़ ही क्या पड़ता है! उन्होंने ऐसे बहुत लोगों को आते-जाते देखा है। इसीलिए तो वह पूरे आत्मविश्वास के साथ गाते रहते हैं , ' तुमसे पहले कितने जोकर आए और आकर चले गए/कुछ जेबें भरकर गुज़र गए कुछ जूते खाकर चले गए ....’ । एक वही हैं जिनके लिए जाने कहां से लगातार यह सदा आती रहती है , ' वीर तुम बढ़े चलो/धीर तुम बढ़े चलो/.... सामने पहाड़ हो/ सिंह की दहाड़ हो/ तुम निडर हटो नहीं/ तुम निडर डटो वहीं... ’ । फ़ि लहाल तक की हिस्ट्री तो यही है कि उन्हें भगाने जितने आए , ख़ुद ही चले गए। अब यह अलग बात है कि चले जाने के सबके अपने अलग-अलग तरी क़े थे। कुछ तोप चलाकर चले गए , कुछ जांच कराकर चले गए , कुछ हल्ला मचाकर चले गए , कुछ इलेक्ट्रॉनिक कैंपेन चलाकर चल

apsamskriti ka khatra

व्यंग्य                                                       अपसंस्कृति का खतरा                                                                                                             -हरिशंकर राढ़ी दूसरी किश्त  सड़कीय समारोहों पर प्रतिबंध् आसन्न अपसंस्कृति का सबसे बड़ा उदाहरण है। देश  के लोगों की रंगीनियत, जज्बे और मितव्ययिता का सम्मिलित रूप है सड़कों का ऐसा प्रयोग! गैरसरकारी संगठनों, सरकारों और न्यायालयों का यातायात के लिए परेशान होना सर्वथा अनावश्यक और तर्कहीन है। अपने देश का यातायात आज तक कभी रुका है क्या? यातायात रुक जाएगा, ऐसा सोचकर आप अपने देश  के वाहन चालकों की क्षमता का अपमान नहीं कर रहे हैं ? किस देश  के ड्राइवर अपने देश के ड्राइवरो से ज्यादा कुशल हैं? ऐंड़े-बैंड़े, आड़े-तिरछे, पटरी-फुटपाथ और डिवाइडर तक पर भी चलवाकर देख लीजिए। कहीं रुक जाएं और मात खा जाएं तो आपकी जूती और मेरा सिर। जहां के लोग जाम और रेड लाइट को कुशलतापूर्वक जंप करना जानते हों, वहां सड़कीय समारोह  यातायात का क्या बिगाड़ लेंगे? लेकिन यहां तो पश्चिमी अंधानुकरण  है। अजी अमेरिका में सड़क पर कोई रुक नही

अपसंस्कृति का खतरा

-  हरिशंकर राढ़ी ऐसा पहली बार होगा कि देश की संस्कृति की चिन्ता करने वाले मेरी किसी बात से इत्तेफाक रखेंगे। बात यह है कि अब मैं भी यह मानने लगा हूं कि देश  में अपसंस्कृति का प्रसार हो रहा है। हालांकि इस प्रकार की स्वीकारोक्ति से मैं देश  की युवाशक्ति  का समर्थन खो दूंगा और मेरी गणना भी खब्तियों में होने लगेगी। युवाशक्ति के समर्थन से हिम्मत दुगुनी रहती है और इस बात का गुमान रहता है कि मैं भी युवा हूं। युवाशक्ति से मेरा कोई प्रत्यक्ष हितलाभ नहीं है क्योंकि मैं कोई चुनाव लड़ने नहीं जा रहा जिसके लिए मुझे युवाशक्ति के रैपर में लिपटे वोट की दरकार हो। फिर भी आत्मरक्षा की दृष्टि  से इस वर्ग से पंगा लेना ठीक नहीं। जब भी ऐसी चर्चा होती है कि देश  में अपसंस्कृति का प्रसार हो रहा है, युवावर्ग फायरिंग पोजीशन  में आ जाता है। कुछ युवापार लोग भी इनके समर्थन में आ जाते हैं क्योंकि इसी अपसंस्कृति के चलते उन्हें  भी सुखद मौके मिल जाते हैं । ऐसी दशा  में संस्कृति के संवाहकों की चुनौती दोहरी हो जाती है। जिसे अपनी टीम का खिलाड़ी होना चाहिए, वह विपक्षी टीम में शामिल हो जाए तो मुश्किल बढ़ेगी ही। मैं वह

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