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Showing posts from October, 2013

Yatra Manual

व्यंग                                         यात्रा मैनुअल                                                                                   -हरिशंकर  राढ़ी (यह व्यंग्य ‘जागरण सखी’ में प्रकाशित हो चुका है. यह दूसरी और अंतिम किश्त है। )          स्लीपर क्लास में यात्रा के लिए जिन विशिष्ट  वस्तुओं की आवश्यकता  होती है, उनकी सूची एक्सक्लूसिवली यहां दी जा रही है। (खाना-पानी, बिस्तर-चादर जैसे सामानों का उल्लेख कर यहां मैनुअल का स्तर नहीं गिराया जाएगा।) यात्रीगण एक किता संड़सी, पेंचकस और मजबूत रस्सी प्राथमिकता के तौर पर रख लें। दरअसल, स्लीपर क्लास की कौन सी खिड़की की चिटकनी खराब है, किसका शीशा  टूटा हुआ है और कौन सी खिड़की का शटर या तो खुल नहीं रहा है या बंद नहीं हो रहा है, इसकी जानकारी संचार साधनों के इतने विकास के बावजूद आपको नहीं मिल पाएगी। बंद खिड़की को खोलने के लिए इन प्राथमिक हथियारों की नितांत आवश्यकताहोती है। मान लिया गर्मी का मौसम है और शटर या शीशा  ऊपर होकर अंटकता ही नहीं, अर्थात वह हमेशा  गिरी हुई राजनीति की स्थिति में रहता है तो आप आम आदमी होने के कारण अंदर-अंदर खौल क

Yatra Manual

 व्यंग्य                       यात्रा मैनुअल                                                                             -हरिशंकर  राढ़ी (यह व्यंग्य ‘जागरण सखी’ में प्रकाशित  हो चुका है)        अगर मैं महान दार्शनिकों  और धर्माचार्यों द्वारा स्थापित इस मत को नकार भी दूं कि जीवन एक यात्रा है, तब भी आज की यात्राओं की लंबाई और यात्रियों की संख्या अकूत रह जाएगी। उद्योगी पुरुषों  द्वारा परंपरागत उद्योगों को दरकिनार करके नए-नए उद्योग स्थापित किए जा रहे हैं। शिक्षा  उद्योग, धर्म उद्योग, प्रवचन उद्योग, वासना उद्योग, रोग उद्योग, फिल्म उद्योग, टीवी उद्योग के साथ-साथ पर्यटन उद्योग खूब विकसित हुआ है। यात्राओं की भरमार हो गई। यात्रावृत्तांतों से साहित्य और इंटरनेट को भर दिया गया। यात्रावृत्तांत एक विधा के रूप में स्थापित हो गया। कुछ बुद्धिमान लेखकों और सलाहकारों ने अपने लेख के माध्यम से यात्रा की तैयारियों और सावधानियों की दीक्षा भी दी। लेकिन सच तो यह है कि यात्रा के लिए निहायत जरूरी वस्तुओं तथा सावधानियों का जिक्र आज तक किसी अखबार या पत्रिका में हुआ ही नहीं, जिसका खामियाजा बेचारा अनुभवहीन य

बाबा की सराय में बबुए

इष्ट देव सांकृत्यायन  इससे पहले -  वर्चुअल दुनिया के रीअल दोस्त आयाम से विधा की ओर ब्लॉग बनाम माइक्रोब्लॉग  अपना सामान J कमरे में टिका कर और फ्रेश होकर नीचे उतरा तो संतोष त्रिवेदी , हर्षवर्धन , शकुंतला जी और कुछ और लोग लॉन में टहलते मिले. एक सज्जन और दिखे, जाने-पहचाने से. शुबहा हुआ कि दूधनाथ जी (जो कि थे भी) हैं. अनिल अंकित जी से कुछ बतिया रहे थे, लिहाजा बीच में टोकना अच्छा नहीं लगा. मैंने कहा बतिया लेने देते हैं, अपन बाद में तय करते हैं, वही हैं या कोई और. इस बीच अरविन्द जी के साथ बैठ गए. दुनिया-जहान की बातें होती रहीं. ख़ासकर भारतीय वांग़्मय में ही मौजूद विज्ञान कथाओं की तमाम संभावनाओं की. बीच-बीच में कुछ इधर-उधर जीव-जंतुओं को लेकर व्याप्त लोकभ्रांतियों की. इस बीच सिद्धार्थ आए, उन्होंने बताया कि उन्हें सपत्नीक किसी पुराने मित्र के यहां जाना है. थोड़ी देर में आते हैं. अरवंद जी भी फ्रेश होने अपने कक्ष में चले गए. तब तक दूधनाथ जी ख़ाली हो गए थे. अकेले टहल रहे थे. मैंने सोचा पूछ ही लेते हैं. ‘क्या आप दूधनाथ जी हैं...’ मैंने हाथ बढ़ाते हुए पूछा. ‘जी हां, मैं हूं...’ उन

ब्लॉग बनाम माइक्रोब्लॉग

इष्ट देव सांकृत्यायन   इससे पहले :   वर्चुअल दुनिया के रीअल दोस्त और आयाम से विधा की ओर इस सत्र के बाद मेरे पुराने साथी अशोक मिश्र से मुलाक़ात हुई. मालूम हुआ कि अब वे वहीं विश्वविद्यालय की ही एक साहित्यक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं. ज़ाहिर है, पुराने दोस्तों से  मिलकर सबको जैसी ख़ुशी होती है, मुझे भी हुई. हम लोग जितनी देर संभव हुआ, साथ रहे. प्रेक्षागृह के बाहर निकले तो मालूम हुआ कि अभी आसपास अभी कई निर्माण चल रहे हैं. ये निर्माण विश्वविद्यालय के ही विभिन्न विभागों, संकायों, संस्थानों और छात्रावासों आदि के लिए हो रहे थे. विश्वविद्यालय से ही जुड़े एक सज्जन ने बताया कि तीन साल पहले तक यहां कुछ भी नहीं था. जैसे-तैसे एक छोटी सी बिल्डिंग में सारा काम चल रहा था. राय साहब के आने के बाद यह सारा काम गति पकड़ सका और विश्वविद्यालय ने केवल पढ़ाई, बल्कि साहित्य-संस्कृति की दुनिया में भी अपनी धाक जमाने लायक हो पाया. अब तो टीचरों से लेकर स्टूडेंटों तक में (माफ़ करें, ये उन्हीं के शब्द हैं) काफ़ी उत्साह है. लोग इसे आपकी दिल्ली के जेएनयू से कम नहीं समझते. अच्छा लगा जानकर कि विश्वविद्यालय तरक्की

आयाम से विधा की ओर

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इष्ट देव सांकृत्यायन  यह भी पढ़ लें : वर्चुअल दुनिया के रीअल दोस्त  वर्धा स्थित सेवाग्राम अश्रम परिसर में बापू कुटी अगले दिन सुबह मैं ठीक समय पर तैयार होकर नागार्जुन सराय आ गया. बस निकलने ही वाली थी, इसलिए और कुछ भी किए बग़ैर मैं सीधे बस में बैठ गया. बस में भरपूर हंसी-ठिठोली करते थोड़ी ही देर में हम लोग सेवाग्राम पहुंच गए. बिलकुल प्राकृतिक वातावरण में मौजूद एक बड़े से परिसर में कई छोटे-छोटे घर... प्रकृतिप्रदत्त सुविधाओं से संपन्न. खपरैल के इन्हीं  घरों में से एक में गांधी जी का ऑफिस हुआ करता था, एक में वह रहते थे और एक में भोजन करते थे. एक घर के बारे में बताया गया कि यहां एक बार जब वे बीमार पड़ गए थे, तब रहे थे. यह उनके लिए उद्योगपति जमनालाल बजाज ने बनवाया था. कुछ लोग बड़ी श्रद्धापूर्वक गांधी जी को याद कर रहे थे, कुछ उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोगों की चर्चा में मशगूल थे, कुछ क्रांतिकारियों के प्रति उनके दृष्टिकोण और कुछ उनके अहिंसा और सत्य पर किए गए प्रयोगों के. वैसे यशपाल के माध्यम से गांधी जी को जानने वालों की भी कमी नहीं थी. अच्छी बात यह थी कि सभी ने सच्चे गांधीवाद

वर्चुअल दुनिया के रीअल दोस्त

इष्ट देव सांकृत्यायन   डॉ. अरविंद मिश्र का ब्लॉग क्वचिदन्यतोsपि बहुत दिनों से पढ़ता आ रहा था. वैज्ञानिक विषयों पर और उससे इतर भी, लोकजीवन के विविध विषयों पर उनका लेखन प्रभावित करने वाला है. हमारा एक-दूसरे के ब्लॉग पर आना-जाना लगभग अच्छे पड़ोसियों जैसा रहा है, यह अलग बात है कि मुख़ातिब नहीं हो सके थे, पर होने का मन था. वयंग्यकार और आम बातचीत को भी तुकबंदी में ढालने की क्षमता रखने वाले अविनाश वाचस्पति मुन्नाभाई से काफ़ी पहले एक बार की मुलाक़ात तो थी. यह मुलाक़ात लगभग उन्हीं दिनों की थी, जब ब्लॉगबुखार वैसे ही फैल रहा था, जैसे आजकल डेंगू. उसके बाद फ़ोन पर हमारी बातचीत ज़रूर हुई, लिखना-पढ़ना तो लगा ही रहा, पर मुलाक़ात नहीं हुई. ब्लॉगिंग के बिलकुल शुरुआती दौर में ही मुलाक़ात हुई थी फ़ुरसतिया यानी अनूप शुक्ल जी से. संस्थागत मीटिंग के लिए कानपुर गया था. गीतकार साथी विनोद श्रीवास्तव से ब्लॉग में साहित्य का ज़िक्र चला तो उन्होंने बताया कि यहां फुरसतिया जी हैं. यह तो मालूम था कि अच्छा लिखने-पढ़ने वाले हैं, क्योंकि उनका ब्लॉग मैं देख चुका था. साहित्य के अलावा और भी बहुत कुछ था हिन्दिनी

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

भाई ख़ुर्शीद अनवर की फेसबुकिया दीवार से बाबा बुल्ले शाह (बुल्ला की जाणां मैं कौण .... तो सुना ही होगा आपने रब्बी शेरगिल का, वही वाले) एक दिलकश कलाम :  होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह नाम नबी की रतन चढी, बूँद पडी इल्लल्लाह रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फ़ना-फी-अल्लाह होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले, सभ सखियाँ ने घूंघट खोले क़ालू बला ही यूँ कर बोले, ला-इलाहा-इल्लल्लाह होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह नह्नो-अकरब की बंसी बजायी, मन अरफ़ा नफ्सहू की कूक सुनायी फसुम-वजहिल्लाह की धूम मचाई, विच दरबार रसूल-अल्लाह होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह हाथ जोड़ कर पाऊँ पडूँगी आजिज़ होंकर बिनी करुँगी झगडा कर भर झोली लूंगी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह फ़ज अज्कुरनी होरी बताऊँ , वाश्करुली पीया को रिझाऊं ऐसे पिया के मैं बल जाऊं, कैसा पिया सुब्हान-अल्लाह होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह सिबगतुल्लाह की भर पिचकारी, अल्लाहुस-समद पिया मुंह पर मारी नूर नबी डा हक से जारी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह बुला शाह दी धूम मची है, ला-इलाहा-इल्लल्लाह होरी खेलूंगी कह कर बिस

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