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Showing posts from February, 2015

कुछ नहीं

इष्ट देव सांकृत्यायन  एक कण भी धूल का संपूर्ण से कम कुछ नहीं ग़ौर से देखो ज़रा तुम आंख से नम कुछ नहीं नाभि में अमृत सहेजे हंस रहा है ठठाकर मर गया रावण, इससे बड़ा भ्रम कुछ नहीं. कुंभकर्णी नींद से जागो तो तुम देख पाओ मेघ के नाद में बस रोष है, संयम कुछ नहीं क्रिकेट ही नहीं, शतरंज में भी अहम है टीम ही एक प्यादा भी यहाँ सम्राट से कम कुछ नहीं जो भी कूवत है धरा पर केवल प्रेम में है दंभ, ईर्ष्या, घृणा, दंड या छल में दम कुछ नहीं प्राण जाने हों तो निकलें जाएं, बेफ़िक्र हैं हम मर-मर के जीना पड़े, इससे बड़ा ग़म कुछ नहीं
इष्ट देव सांकृत्यायन  भूमिका लिखे बिना उपसंहार करते हो एक ही ग़लती तुम बार-बार करते हो जिनके नकद का भी नहीं भरोसा कोई कैसे सौदागर हो, उन पर उधार करते हो जिगर का ख़ून ही जिस ख़ून की पहचान है उनके वादे पर तुम ऐतबार करते हो सुधरने का ख़याल ही हराम है जिन पर किस तरह उनसे उम्मीद-ए-सुधार करते हो जिनके रग-रग में भरा है फ़रेब केवल हद है, उनसे दोस्तों सा करार करते हो बजा रहे हो सिर्फ़ एक हाथ से ताली अहमक हो, ये कैसा व्यवहार करते हो.

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